॥ अमृत-वाणी - १५ ॥


इस जीवन की अन्तिम श्वास के वक्त जिस किसी स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, भूत-प्रेत, देवी-देवता आदि किसी का भी स्मरण करोगे तो अगले जीवन में वही शरीर प्राप्त होगा।
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जल और मन की गति हमेशा नीचे की ओर होती है, जल को पंप रुपी यंत्र और मन को भगवद-नाम रुपी मंत्र दे दोगे तो दोनो की गति ऊपर की तरफ़ हो जायेगी।
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जब जीवात्मा अपनी बुद्धि तन और धन से हटाकर मन की ओर लगाने का निरन्तर अभ्यास करता है, तब वह जीवात्मा एक दिन अपने को महापुरुषों की श्रेणी मे खडा पाता है।
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निरन्तर सत्संग करते रहने पर जीव को जब अपने वास्तविक स्वरूप का बोध होता है तब सांसारिक मोह से छूट जाता है इसलिये अन्तिम समय में केवल परमात्मा का स्मरण शेष रह जाता है।
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जीवात्मा मॄत्यु के वक्त जिस स्वरुप का ध्यान करके शरीर त्यागता है उसी शरीर को प्राप्त करता है इसलिये कर्म इस प्रकार करो जिससे अन्तिम श्वास के वक्त भगवान के स्वरुप का स्मरण हो आये।
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संसार से बैरागी होना तब तक व्यर्थ है जब तक परमात्मा से राग उत्पन्न न हो जाये।
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भगवान का शुद्ध-भक्त ही मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है इसलिये भगवान के भक्त बनो।
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जिस भक्त पर भगवान की कृपा हो जाती है भगवान की शक्तियों की कृपा स्वत: ही हो जाती है।
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परमात्मा का अनुभव वही कर पाता है जो मन और बुद्धि से परे चेतन स्वरुप में स्थित हो जाता है।
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जब जीवात्मा जीवन को छोडकर मृत्यु को याद रखता है तो माया-जाल (संसार) में कभी नही फ़ंसता है।
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जब तक सांसारिक व्यवहार को सत्य मानते रहोगे तो सत्य स्वरूप परमात्मा को कभी नही जान पाओगे।
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जीवात्मा जब भूल जाता है कि मृत्यु शरीर की होती है आत्मा की नही तभी सांसारिक मोह में फ़ंस जाता है।
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किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा हो तो उसे धर्मानुसार उपयोग करोगे तभी उस वस्तु का सुख पा सकोगे।
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वेद-शास्त्र स्वयं भगवान की आज्ञा है भगवान की आज्ञा का उलंघन करके संसार में कौन सुख-शान्ति से रह सकता है।
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साधु और संतों को भेष से नही रहन-सहन और स्वभाव से जाना जाता है, स्वभाव जानने के लिये संग करना आवश्यक है।
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