॥ अमृत-वाणी - १ ॥



नि:स्वार्थ भाव से जो भी पुरुषार्थ किये जाते हैं, वही सही मायने में परमार्थ होते हैं।
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सदगुरु से प्राप्त शरणागति मन्त्र का जाप श्रद्धा से करने से ही मन की शुद्धि होती है।
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संतो के साथ निरन्तर सत्संग करोगे तो धीरे-धीरे परमात्मा से दूरी कम होती जायेगी।
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मन को संसार में जितना अधिक लगाओगे तो उतने ही परमात्मा से दूर होते जाओगे।
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सभी दुखों से निवृत्ति परम-आनन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होने के बाद ही होती है।
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संसार में निष्ठा रखोगे तो बंधन में फ़ंसोगे, भगवान में निष्ठा रखोगे तो मुक्त हो जाओगे।
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पाप कर्म केवल भगवान के शरणागत होकर भगवद-भक्ति करने से ही नष्ट हो सकते है।
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जीवात्मा जब से शरणागति की पूर्ण महिमा जान जाती है वह तभी से मुक्त हो जाती है।
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जितनी अधिक शारीरिक सुख की इच्छा करोगे उतने ही अधिक मानसिक दुख प्राप्त करोगे।
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परमात्मा प्राप्ति तभी संभव है जब स्वयं पर अविश्वास और भगवान पर अटूट विश्वास होगा।
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भक्ति-मार्ग में प्रवेश के केवल दो ही मार्ग है निष्काम कर्म-मार्ग और निष्काम ज्ञान-मार्ग।
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भगवान की कृपा केवल उन्ही पर होती है, जो निष्काम-भाव से भगवान पर आश्रित होकर कार्य करते हैं।
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मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना होता है।
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शरीर पालन के लिये अधर्म न करो, शरीर तो यहीं रह जायेगा लेकिन अधर्म तो अनेकों जन्मो तक पीछा नही छोडेगा।
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शक्तिशाली वही है जिसने सर्वशक्तिमान भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, भगवान की शरण में रहने वाला भय से मुक्त हो जाता है।
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