॥ अमृत-वाणी - ७ ॥


महात्मा वही है जिसके मन में भगवान का स्मरण बना रहता है, और सभी इन्द्रियाँ भगवान की सेवा करने में लगी रहती हैं।
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जैसा संग करोगे वैसे ही गुण-दोष आयेंगे और वैसा ही कर्म होगा, धर्म के अनुसार कर्म करने से परमात्मा से प्रेम होने लगता है।
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निष्काम भाव से कर्म करने से परम-सिद्धि की प्राप्ति होती है, जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नही रहता है।
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शरीर में पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ कान, आँख, जीभ, नाक और त्वचा होती है और इनके पाँच विषय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शं होते है।
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जैसे छात्र अध्यापकों की आज्ञानुसार पुस्तकों का अध्यन करता है वैसे ही सत्संगी को गुरु की आज्ञानुसार शास्त्रों का अध्यन करना चाहिये।
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निष्काम-प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है, इस प्रेम को भक्ति कहते है, संसार में तो सकाम-प्रेम होता है, यह प्रेम व्यापार के रूप में ही होता है।
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सन्यासी वही है जिसका मन सहित शरीर से विषयों का सम्पर्क नही है, पाखंडी वह है जिसका इन्द्रियों से विषयों का सम्पर्क नही रहता है परंतु मन में विषयों का चिंतन बना रहता है।
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देवता वह है जिसका तन विषय भोगों में लिप्त रहता है परंतु मन से भगवान की आज्ञा का पालन करता है, असुर वह है जिसका तन और मन विषय भोगों में ही लगा रहता है।
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भक्त वह है जो तन से कर्तव्य-कर्म करता है और मन, वाणी से निरन्तर भगवान का स्मरण करता है, अभक्त वह है जो वाणी से तो भगवान का नाम जपता है और मन से दूसरों का बुरा चाहता है।
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भगवान का भक्त बनो, भगवान का भक्त बनना सबसे आसान कार्य है, जो भी कार्य करो भगवान के लिये करो और भगवान को याद करके करो, भगवान का भक्त कभी दुखी नही होता, यह कल्पना नहीं बल्कि यह सत्य अनुभूति है।
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परमात्मा का नाम परमात्मा से भी अधिक शक्तिशाली है, जो कि अप्रकट परमात्मा को भी प्रकट करा देता है।
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परमात्मा में मन लगेगा तो स्वभाविक रुप शांति और संतोष का अनुभव होगा एवं सब प्रकार की उन्नति होगी।
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जो दूसरों के गुणों और दोषों का चिन्तन करते है तो दूसरो के गुण और दोष उसके अन्दर स्वत: ही आ जाते है।
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आसुरी स्वभाव वाला अपनी इच्छानुसार पुरुषार्थ करता है, और दैवीय स्वभाव वाला शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करता है।
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गोपी-भाव में वही स्थित है जिसने बुद्धि सहित मन और अहंकार को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया है।
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