॥ अमृत-वाणी - ८ ॥


कलियुग में केवल "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का ही श्रवण, अध्यन एवं मनन और आचरण के द्वारा ही मुक्ति संभव है।
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जगत में जो दृष्टा बनकर रहता है, वह संसार में किसी की भी निन्दा या स्तुति नही करता है वही यथार्थ देख पाता है।
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संसार के सभी प्राणी पूर्ण ज्ञानी है परन्तु सभी के ज्ञान पर मिथ्या अहंकार के कारण अज्ञान का आवरण चढा हुआ है।
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सर्वशक्तिमान भगवान साक्षात् वाणी "श्री मद्‍ भगवत-गीता" के अनुसार कर्म करने से ही सुख, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होगी।
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परमात्मा को मन और बुद्धि से नही केवल आत्मा से जाना जा सकता है परमात्मा तो मन, बुद्धि से परे परम-आत्म स्वरुप है।
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पुण्य कर्म करने से पाप कर्म नष्ट नही होते है, पुण्य कर्म का फ़ल भी भोगना पडेगा और पाप कर्म का फ़ल भी भोगना ही पडेगा।
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परमात्मा की प्राप्ति केवल मनुष्य-योनि में ही होती है, क्योंकि मनुष्य-योनि ही कर्म-योनि है अन्य योनियाँ तो भोग-योनि होती है।
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समदर्शी वही है जो संसार की प्रत्येक ज़ड वस्तु को परमात्मा का स्वरूप और प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश समझता है।
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परमहंस-अवस्था और गोपी-भाव एक ही अवस्था होती है, गोपी-भाव में स्थित जीवात्मा को ही भगवान की शुद्ध भक्ति प्राप्त होती है।
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भगवद-प्राप्ति की इच्छा जब तक दृढ़ न होगी तब तक अनेकों वासनाओं के चक्कर में पतंग की भाँति न जाने कहाँ-कहाँ उडते फिरोगे।
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जो अपने धर्म का पालन करते हुए मरता है उसकी सदगति होती है और जो दूसरों के धर्म को अपनाकर मरता है उसकी दुर्गति होती है।
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कामना रहित होकर वर्णाश्रम के अनुसार हर परिस्थितियों को भगवान का प्रसाद समझकर जो भी कार्य किया जाता है, वही नियत कर्म भगवान की आराधना ही है।
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स्वच्छ राष्ट्र का निर्माण केवल वर्णाश्रम धर्म के अनुसार ही हो सकता है यह राज-तंत्र में ही सम्भव हो सकता है लोक-तंत्र मे नही हो सकता है जो कि कलियुग में असंभव है।
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केवल "श्री मद्‍ भगवत-गीता" ही सभी शास्त्रों (वेदों, उपनिषदों, पुराणों) का पूर्ण सार है, नित्य गीता का अध्यन करने से धर्म की शिक्षा मिलेगी जिससे धर्म का आचरण होने लगेगा और अधर्म से बच जाओगे।
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शास्त्र-अनुकूल पुरुषार्थ से ही सांसारिक शान्ति, पुण्य-कर्म का संग्रह और मोक्ष की प्राप्ति होती है, शास्त्र-प्रतिकूल पुरुषार्थ से ही सांसारिक अशान्ति, पाप-कर्म का संग्रह और बन्धन की प्राप्ति होती है।
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