॥ अमृत-वाणी - १० ॥


अमीर वह है जिसका मन (चेतन तत्व) परमात्मा मे स्थित है गरीब वह है जिसका मन (ज़ड पदार्थ) तन और धन में स्थित है।
*******
जिस प्रकार शक्तिमान से शक्ति अलग नही हो सकती है उसी प्रकार ज़ड और चेतन प्रकृति परमात्मा से अलग नही हो सकती है।
*******
जब तक जीवात्मा भक्ति-कर्म या सांसारिक-कर्म सकाम भाव (फ़ल की इच्छा) से करता रहेगा, तब तक जन्म-मृत्यु के बंधन में ही फ़ंसा रहेगा।
*******
जब जीवात्मा भक्ति-कर्म या सांसारिक-कर्म निष्काम भाव (बिना फ़ल की इच्छा) से करेगा, तभी उसे ब्रह्म-ज्ञान (परमात्मा का ज्ञान) प्राप्त हो सकेगा।
*******
जब किसी जीवात्मा का सत्संग के द्वारा विवेक जाग्रत हो जाता है तभी जीव का मिथ्या अहंकार (शरीर का आकार), शाश्वत अहंकार (आत्मा का आकार) में परिवर्तित हो पाता है और तब अज्ञान का आवरण हटने लगता है।
*******
अज्ञानता और भ्रमवश प्रत्येक मनुष्य स्वयं को ज्ञानी और दूसरे व्यक्ति को अज्ञानी समझता है।
*******
जब जीवात्मा में ब्रह्म-ज्ञान प्रकट होता है तभी जीवात्मा को भगवान की शरणागति प्राप्त होती है।
*******
जब जीव को भगवान की शुद्ध-भक्ति प्राप्त होती है तभी जीव पूर्ण मुक्त होकर भगवान को प्राप्त होता है।
*******
जो मनुष्य अपने शरीर को साधन मानकर कामना रहित साधना करता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है।
*******
जब जीवात्मा को भगवान की शरणागति प्राप्त होती है तभी जीवात्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है।
*******
जब जीवात्मा भगवान से अनन्य-भाव से प्रेम करती है तभी जीवात्मा को भगवान की शुद्ध-भक्ति प्राप्त होती है।
*******
तन, मन और धन की उपयोगिता तभी है, जब तन एवं धन परमार्थ में और मन भगवान के स्मरण में लगे।
*******
जैसे छात्र सांसारिक ज्ञान के लिये विधालय जाते है वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान के लिये सत्संग मे जाना चाहिये।
*******
जो जीवात्मा जिस किसी की भी निन्दा एवं स्तुति करता है वह उसके गुण और अवगुण भी ग्रहण कर लेता है।
*******
सदगुरु वही होता है जो संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति से निवृत्ति करा देता है।
*******