॥ अमृत-वाणी - १२ ॥


जैसा व्यवहार दूसरों के द्वारा चाहते हो वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करोगे तो सभी मत-भेद मिट जायेंगे।
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यदि मन भगवान में लगाओगे तो मन सरलता से स्थिर हो जायेगा, स्थिर मन वाला ही सुख को प्राप्त होता है।
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निरन्तर मन और बुद्धि को भगवान मे लगाने वालों का अति शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-सागर से उद्धार होता है।
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संसार सागर को पार करने के लिये भगवान के चरण रुपी नाव का सहारा लोगे तो आसानी से पार हो जाओगे।
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निरन्तर मन और बुद्धि को भगवान मे लगाने वालों का अति शीघ्र ही दुख रूपी संसार-सागर से उद्धार होता है।
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जो सभी प्राणियों में एक मात्र अपनी आत्मा का अनुभव करता है, वही स्थिर मन वाला सत्य को जानने वाला है।
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संसार में जो कुछ भी तुम्हारा है उसे भगवान का समझकर उपयोग करोगे तो भगवद-प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि को पाओगे।
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ज्ञान-योगी से भक्ति-योगी का मार्ग आसान है, ज्ञान-योगी स्वयं के भरोसे और भक्ति-योगी परमात्मा के भरोसे चलता है।
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तुम जो कुछ भी करते हो उसके फ़ल को पहले भगवान को अर्पित करके चलोगे तो भगवान प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि को पाओगे।
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शास्त्रों का सार न जानने से शास्त्र-अध्यन श्रेष्ठ है, शास्त्र-अध्यन से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सभी कर्मफ़लों का त्याग श्रेष्ठ होता है।
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परमात्मा का निर्गुण-निराकार स्वरुप के चिंतन करने वालों से परमात्मा का सगुण-साकार स्वरुप के चिंतन करने वाले श्रेष्ठ होते हैं।
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जब मन स्थिर हो जाता है तब इन्द्रियाँ स्वयं ही वश में हो जाती है, या इन्द्रियाँ वश में कर लोगे तो मन स्वयं ही वश में हो जायेगा।
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नित्य भगवान के भजन, चिंतन के लिये थोड़ा - थोड़ा समय निकाल कर अभ्यास करो और धीरज रखो, एक दिन पात्रता प्राप्त हो ही जायेगा।
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जिस प्रकार राष्ट्र के नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को सरकार के द्वारा दण्डित किया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के नियमों का उल्लंघन करने पर जीवात्मा को प्रकृति के द्वारा दण्डित किया जाता है।
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मनुष्य को जीवन में चार पुरुषार्थ करने होते है। १. धर्म (शास्त्र-बिधि का पालन), २. अर्थ (धर्मानुसार धन का संग्रह), ३. काम (धर्मानुसार कामनाओं की पूर्ति), ४. मोक्ष (धर्मानुसार सभी कामनाओं का त्याग)।
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