आध्यात्मिक विचार - 27-12-2010


संसार एक धर्मशाला के समान है, हर व्यक्ति यहाँ यात्री है, व्यक्ति का शरीर इस धर्मशाला का कमरा है, यहाँ उपयोग की सभी वस्तुऎं धर्मशाला की हैं, इसलिये धर्मशाला की सभी वस्तुओं को व्यक्ति को अपना कभी नहीं समझना चाहिये, जो व्यक्ति स्वयं को यात्री समझकर सभी वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग करता है वह सभी सांसारिक बंधन से मुक्त रहता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का भली प्रकार से उपयोग करता है तो अगली बार उसे इस धर्मशाला में उच्च श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है, जो यात्री इस धर्मशाला की वस्तुओं का दुरुपयोग करता है तो उसे अगली बार निम्न श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का बिना किसी आसक्ति के उपयोग करता है तो वह सभी कर्म बंधन से मुक्त रहता है, उसे फिर इस धर्मशाला रूपी संसार में पुन: नहीं आना पड़ता है, तब वह अपने घर में पहुँचकर शाश्वत आनन्द प्राप्त करता है।