जब तक व्यक्ति के मन में किसी के भी प्रति ईर्ष्या रहती है और वाणी किसी की निन्दा करती है तब तक यह समझना चाहिये कि अभी भक्ति-कर्म अभी आरम्भ नही हुआ है।
तब तक व्यक्ति के मन में भक्ति के नाम से अन्य कोई खेल चल रहा होता है और अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा होता है।